आस्था की चिकनी राह पर हमारे धर्म की कमजोर गाड़ी इतनी बार लुढ़की कि आज हमने संत की जगह साँई को ही मंदिरों से बाहर का रास्ता दिखा दिया। साँई के नाम पर सनातन संत की यह जंग वाक् युद्ध के वृहद रूप में ‘धर्म-संसद’ बन मनमाने फतवे जारी करने का मंच बन चुकी है। जिसमें धर्म के नाम पर सरेआम हमारी आस्था का मखौल उड़ाया जा रहा है। आप ही फैसला कीजिए कि आखिर यह कैसा धर्म और कैसी धर्म संसद है, जिसमें धार्मिक सहिष्णुता तो गौण हो गई है और ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का भाव सर्वोपरि?
‘साँई बनाम सनातन संत’ की जंग अब वाक् युद्ध से आगे निकलकर ‘धर्म-संसद’ की हिंसक भीड़ में तब्दील हो चुकी है। यह भीड़ भेड़ चाल में चलने वाले उन कट्टरपंथियों की भीड़ है, जो संत का आदेश होते ही बगैर सोचे-विचारे मंदिरों में तबाही का तांडव मचाती है। भीड़ के इस कृत्य में आश्चर्य तो इस बात का है कि इसे जिस ओर विरोध के स्वर मुखरित करना चाहिए। उसका विरोध करने की बजाय यह उसी के नाम के भगवा झंडे लिए साँई मंदिरों का कूच कर रही है। ‘संत और साँई’ के नाम पर होने वाले इस पूरे राजनीतिक ड्रामे में किसी को यह समझ नहीं आ रहा है कि आखिरकार संत कहाने वाले शंकराचार्य पर अचानक ऐसी क्या सनक सवार हो गई है कि वह खिसियाई बिल्ली की तरह बार-बार साँई की प्रतिमा से अपना सिर फोड़ रहे हैं?
सांप्रदायिक सद्भाव के प्रतीक इस देश में इन दिनों ‘लव जिहाद’ और ‘संत बनाम साँई’ के रूप में धर्म के नाम पर जमकर राजनीति की जा रही है और यह सब ऐसे देश में हो रहा है, जिसके संविधान की प्रस्तावना में ही ‘धर्मनिरपेक्षता’ की बात कही गई है। आखिर यह कैसा धर्म निरपेक्ष राज्य है, जिसमें लोग धर्म और भगवान के नाम पर लड़ रहे हैं? कल तक हमने इस्लामी फतवों के बारे में सुना था लेकिन अब सनातन धर्मी भी ‘धर्म संसद’ के नाम पर अपने मनमाने फतवे जारी कर रहे हैं।
पद चाहे कोई भी हो, उसकी गरिमा का सम्मान करना पदासीन होने की पहली प्रमुख शर्त होती है और यह जिम्मेदारी तब बहुत अधिक बढ़ जाती है, जब किसी व्यक्ति को ‘धर्मगुरू’ का सम्माननीय पद दिया गया हो। इसे हम द्वारकापीठ के स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के बढ़ती उम्र की दरकार कहें या उनकी विकृत मानसिकता, जिसके चलते पिछले कुछ महीनों से उनकी जुबान लगातार फिसले जा रही है और हर बार उनके मुँह से धार्मिक सहिष्णुता व शांति को कायम करने वाले शब्दों की जगह साँई के प्रति जहर ही निकल रहा है। स्वामी का साँई से मतभेद अब ‘धर्म संसद’ के रूप में सजी ऊँची दुकानों से जगजाहिर हो रहा है। अर्नगल बहस का अड्डा बन चुकी ये दुकानें अब देश में अलग-अलग स्थानों पर फैलकर सनातनियों में हिंसक सनातनी व अहिंसक सनातनी के दो गुट बना रही है। कभी पत्रकार को थप्पड़ रसीद करना तो कभी साँई प्रतिमा को गंगा में प्रवाहित करने से भक्तों को रोकना इसी बात का परिचायक है कि स्वामी जी की उम्र और मानसिकता अब इस पद की जिम्मेदारी के लायक नहीं रही है ऐसे में मंदिरों से साँई प्रतिमाओं को हटाकर हिंसा भड़काने की बजाय बेहतर होगा कि स्वामी जी ससम्मान अपने पद से त्यागपत्र दे दे। यूँ अखबारों की सुर्खियाँ और चैनलों की टीआरपी बढ़ाने की बजाय यदि वह अपनी ऊर्जा धार्मिक उपदेश देने में लगाएँगे तो इससे उनके साथ-साथ उनके करोड़ों अनुयायियों का भी कल्याण होगा और सही माइनों में सनातन की धर्म की ‘प्राणियों में सद्भावना हो व विश्व का कल्याण हो’ वाली बात हकीकत में भी देखने को मिलेगी। साँई से शाब्दिक जंग लड़़ने वाले मेरे प्रिय संत शायद इस बात से अनभिज्ञ है कि यह तो हमारी आस्था के साँई है, जो प्रतिमाओं के हटने पर भी सदियों तक हमारे दिलों में बसे रहेंगे। यह तो भक्तों की आस्था व साँई का जीवन चरित्र है, जिससे प्रभावित होकर हिंदु-मुस्लिम भक्तों ने साँई को ‘राम’ और ‘रहीम’ दोनों का समरूप मानकर पूजा है। सर्वधम सद्भाव के प्रतीक साँई को मंदिरों से हटाने वाले तथाकथित लोग हमारी आत्मा में बसे आस्था के साँई को आखिर कैसे हटा पाएँगे?
मेरी आप सभी से अपील है कि आप धर्म, मंदिर और मस्जिद के नाम पर हो रही जंग से तौबा कर अहिंसा का मार्ग अपनाइए। यदि आप कमजोर पड़ गए तो आपके धर्म व आस्था की आयु भी अल्प हो जाएगी। आपको धर्म के नाम पर उकसाने वालों का प्रमुख लक्ष्य ही देश की एकता छिन्न-भिन्न कर लोगों को जाति व धर्म के नाम पर बाँटना है। याद रखिए किसी भी धर्म व आस्था के नाम पर हिंसा भड़काने वाले फतवे जारी कर पद की गरिमा को ठेस पहुँचाने का अधिकार किसी भी ‘धर्म-संसद’ को नहीं है फिर चाहे वह हिंदुओं की धर्म संसद हो या इस्लाम के फतवे।
-गायत्री शर्मा
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
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