खेत की मेढ पर बैठा बूढ़ा

village life

राजनीति भी अजीब होती है। कल तो जो अर्श पर थे, अगले दिन वे फर्श पर आ जाते हैं। उतार-चढ़ाव ऐसे कि उन्हें यकीन नहीं होता।

हम गांव चलते हैं ताकि इसे अच्छी तरह समझा जा सके।

गांव में खेत हैं। हरियाली है। फसल बोयी गयी। उसे सींचा गया। परिवार साथ था। दोपहर को पेड़ की छाया में मुलायम घास की दरी पर नमक की रोटी गुड़ के साथ बड़े चाव से खायी। साथ में छाछ का स्वाद। वाह! आनंद आ गया।

कुछ समय के लिए आराम किया। हवा का मंद झोंका दुनियादारी की अड़चनों से दूर ले गया। आंख लग गयी। शरीर ऊर्जावान हो गया।

खेत की रखवाली पूरा परिवार कर रहा है। हर तरफ उम्मीदों की एक लहर है।

फसल पकी। खुशी मिली, पैसे भी।

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दिन बीतते गये। परिवार के बच्चे बड़े हुए। उनकी शादी हुई। किसान पोता-पोती वाला हो गया। वह चहलपहल, समृद्धि को देखकर प्रसन्न है।

अब वह बूढ़ा हो चला था।

उसका निर्णय जो पहले सर्वोपरि हुआ करता था, दिन बीतने के साथ उसकी कोई सुनता नहीं था। वह अकेला पड़ गया।

वह खेत की मेढ पर बैठ जाता। खेत की जुताई करते अपने बच्चों को देखता तो सोच में पड़ जाता। वह कुछ कहता तो उसकी आवाज कांपने लगती। वह चिल्लाने की कोशिश कर नहीं सकता था। इसलिए वह स्वयं बुदबुदाता रहता। इसी दौरान आंसुओं की कुछ बूंदें धरती पर गिरकर गायब होती रहतीं।

बूढ़ा किसान खेत के किनारे चुपचाप बैठा रहा। वह उस पेड़ को देखता रहता जिसकी छाया कभी सुकून पहुंचाती थी। आज जमीन के बंटवारे में वह पेड़ नहीं रहा।

फिर एक दिन वह बूढ़ा चल बसा।

अब खेत की मेढ पर कोई नहीं बैठता।

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-हरमिन्दर सिंह चाहल.
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