सफर के बिना जिंदगी अधूरी है। जिंदगी एक सफर ही तो है। खामोशी से देख रही आंखें, शांत पड़ीं बिस्तर पर देह के साथ।
जीव का सफर यहीं तक था। हां, जीवन यहीं तक था।
रोते-बिलखते लोग परिवार के हैं, आस-पड़ोसी भी हैं। क्या करें किसी के जाने पर भीगती हैं आंखें।
भीगता है दिल; क्योंकि वह भर आता है असमय हुये घात से। दर्द, पीड़ा, कराहता है इंसान। भावनायें बह निकलती हैं- यही जीवन का सच है, बाकि जीवन चलता है, बिना ठहरे, बिना थमे, रूकती है तो बस जिंदगी जब थम जाती है किसी की सांस।
शरीर निर्जीव हो गया। बेजान, बेसुध।
भीगी पलकों को कौन पोंछेगा? ...कोई नहीं।
हां, कोई हो तो पोंछे। दूरी बन गयी उतनी जितनी ज्यादा मान ली जाये। सच्चाई है तो सच है। सच ही मान लिया जाये। सच यह है कि जीवन कभी अपना नहीं था, न तय था यह, न होगा। भ्रम का जीवन किसने बताया।
कुछ पंक्तियां लिखी हैं -
जीवन आया है जाने के लिये,
जीव को जीव से मिलाने के लिये,
पूराने बदले चुकाने के लिये,
वादा कर दोबारा आने के लिये।
जीव को जीव से मिलाने के लिये,
पूराने बदले चुकाने के लिये,
वादा कर दोबारा आने के लिये।
-हरमिन्दर सिंह चाहल.
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