यादों का बसेरा



यादों का बसेरा है। बुढ़ापा उनमें खो रहा है। हथेली को देखकर जीवन की मुस्कान को उसने नहीं बदला है। वह नयी समझ को विकसित कर रहा है। ताकि उम्र बढ़ने के साथ वह जीवन की नयी पाठशाला में जोर आजमाइश कर सके।

पाठशाला जीवन की है, मगर उम्रदराज उससे वाकिफ हैं। वे समझ चुके हैं कि असलियत से दो-चार वक्त के साथ हर किसी को होना है।

हंसी अब ठिठक रही है। आंखों की ज्योति में वो चमक नहीं रही। चमड़ी झुर्रियों से नाता जोड़ चुकी है। शरीर खुद से दूरी बनाने की कोशिश में है।

बुढ़ापा कह रहा है कि जीवन की यह पाठशाला कितना कुछ सिखा रही है। ढेर ज्ञान है यहां।
भंडार अथाह है।

सिमट रही जिंदगी की कहानी को बयान करने का मन नहीं करता। नयी कहानी कब शुरू हो, यह भी मालूम नहीं। स्वयं को खुद में समेटने की आदत हो गयी है।

यह जीवन का सच है। कुछ भी झुठलाया नहीं जा सकता, न भुलाया जा सकता। यादों को एक पल के लिये भी खुद से दूर नहीं किया जा सकता। यादों का बसेरा बहुत अजीब है। लोग भुलाये नहीं जाते।

-हरमिन्दर सिंह चाहल.

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