सफरनामा : गजरौला से बिजनौर -4
बिजनौर रेलवे स्टेशन पर रेलगाड़ी रुकी। बारिश बहुत तेज थी। डिब्बे में बैठकर उसका एहसास नहीं किया जा सकता था, लेकिन खिड़की तक आते-आते बहुत कुछ समझ आ रहा था। मैं दौड़कर प्लेटफ़ॉर्म के टिन शैड के नीचे खड़ा हुआ। कुछ दूरी पर टैंपो, रिक्शे आदि सवारियों का इंतजार कर रहे थे।
पैदल चलना बेवकूफी था। पता किया तो वहां से बस अड्डा काफी दूरी पर था। मैं बरसात के थमने का इंतजार कर रहा था। ऐसा होता नहीं दिख रहा था। इंतजार और भी लोग कर रहे थे। जब कोई कार आकर रुकती तो सबकी निगाह वहां टिक जाती।
वहीं से अंदाजा लगाने की कोशिश भी की कि पर कुछ खास समझ नहीं आया। भीगना तय था और वह भी बुरी तरह।
हिम्मत कर मैं इ-रिक्शा में बैठ गया। चालक के बराबर में बैठना सबसे खराब अनुभव होता है, यह मुझे तब ज्ञान हुआ। बैटरी से चलने वाला यह वाहन पॉलिथीन से ढका था जो आगे से फटी हुई थी। जब रिक्शा चला तो मुझे उसे हाथ से पकड़ना पड़ा। बारिश का पानी हवा की गति के साथ ऐसा संयोग बना रहा था कि मेरा नहाना तय था। कमीज के बाजुओं के सहारे पानी पूरे शरीर का दौरा करने की फिराक में था। मेरा मोबाइल फोन जेब में असुरक्षित महसूस कर था। मुझे डर था कहीं उसमें पानी न घुस जाये।
सड़कों के गड्ढों पर रिक्शा डोलती हुई चली रही थी। तालाबी सड़कों का संघर्ष करते हुए भी मेरे द्वारा मुआयना जारी था। पत्रकार होने की सबसे अच्छी बात यह होती है कि आप चीजों पर निगाह डालना नहीं छोड़ते। बारीकी से अध्ययन करने की कोशिश मैं करता हूं, मगर कई बार स्थिति ऐसा अवसर नहीं दे पाती। खुलकर चलने से बेहतर बैठे-बैठे, बंधे हुए भी अध्ययन किया जा सकता है।
जरुर पढ़ें : यात्रायें हमें नये लोगों से मिलाती हैं
बूंदें और हवा के थपेड़ों को सहता हुआ मैं आखिरकार बस अड्डा पहुंचा। पता किया तो ज्यादातर लोग गजरौला के लिए बस के बारे में सही-सही नहीं बता पाये।
एक बस आकर रुकी जिसपर दिल्ली लिखा था। मैं तेजी से वहां दौड़ा। देखा देखी और भी लोग निकल आये। ऐसा लगा जैसे वे कहीं छिपे थे। सवारियां अभी गाड़ी से उतर रही थीं। बरसात फिर तेज हो गयी। बचकर क्या फायदा? नहाने में ही आनंद का अनुभव किया जा सकता था या नहीं, लेकिन मर्जी तो मेरी चल नहीं सकती थी।
बस में बैठकर कुछ सुकून मिला।
अपने शहर की ओर बढ़ रहे थे हम। बरसात भी उसी तरह थमती जा रही थी। नजारे बदल रहे थे। सड़कें बेहतर हो चली थीं। अब बस सुकून से चल रही थी। कुछ घंटे बाद मैं गजरौला में था।
सच है कि जिंदगी दौड़ती रहती है। चलने-फिरने वाले मौसम की परवाह नहीं करते। पैर दौड़ते हैं, दौड़ते जाते हैं। शायद जिंदगी यही है।
-हरमिन्दर सिंह चाहल.
सफरनामा : गजरौला से बिजनौर -3
Facebook Page Follow on Twitter Follow on Google+