सुबह मुझे फिर से 50 किलोमीटर से ज्यादा की यात्रा करनी थी। पहले भी मैं इस तरह की यात्रा कर चुका हूं।
रात को तैयारी करके सोया था। देखने में ऐसा लग सकता है जैसे यह कोई भारी-भरकम यात्रा थी। ऐसा बिल्कुल नहीं है। दरअसल मैं किसी जरूरी काम से कहीं जा रहा था।
जरूरी काम हर किसी को होते हैं। लेकिन मेरे काम कुछ लोगों से मिलने तक और किसी स्टोरी को तैयार करने से अधिक नहीं होते। देखा जाये तो यह बहुत पेचीदा काम है।
पहले लोगों को तलाश करो। फिर उनसे जानकारी एकत्रित करो और उसके बाद फोटो भी खींचो। कुल मिलाकर काम आसान नहीं होता। उसे पूरा करने के बाद उसकी कहानी लिखो जिसके लिये कई घंटे का वक्त जाया हो सकता है।
मेरे लिये यह हर बार आसान नहीं होता। मैं वैसे भी कई कामों को सुस्ती से कर देता हूं जो मेरे परिवार को लगता है ऐसा करना मेरी आदत है, जबकि हर बार ऐसा नहीं होता।
रेलगाड़ी की यात्रा मुझे शुरू से हैरान भी करती रही है और मैं परेशान भी होता रहा हूं। परेशानी कई बार इतनी हो गयी कि मेरा सिर भी चकरा गया। थकान के कारण मैं बीमार होते-होते बचा। वैसे रात में नींद अच्छी आयी, थकान की वजह से शायद।
ट्रेन का समय करीब था। हार्न की आवाज कुछ देर बाद सुनाई दी। मां चिल्लायी और बोली -"गाड़ी छूट गयी। अब बस से जाना।"
मुझ पर कोई भी चिल्ला सकता है।
पिताजी और भाई ने उतना ध्यान नहीं दिया। कोई नहाने में व्यस्त था। किसी को व्यायाम करना था।
जरुर पढ़ें : यात्रायें और समय की मजबूरी
चलो बस से सफर तय करते हैं। मन में सोचा कि सफर छोटी दूरी का है। उसपर इतना रौला मच रहा है। यदि मैं मनाली या नैनीताल जा रहा होता तो मेरी मां क्या करतीं।
दो अंडे जो उबले थे उन्हें आराम से खाया। चाय भी साथ थी। घड़ी में सूई देखी। फिर दूसरी सूई देखी। ट्रेन मेरे हाथ नहीं लगने वाली थी। टिकट खिड़की पर टिकट लेने की कैसे सोच सकता था।
दवाई दोपहर को खानी थी। चिकित्सक के कहे का पालन करना मेरी मजबूरी है। ऐसा नहीं कि वह नाराज हो जायेगा बल्कि यह मेरी सेहत से जुड़ा मुद्दा है। मेरे लिये सेहत काफी अहम है। वो अलग बात है कि मैं उसपर कम ध्यान दे देता हूं।
दवाई की पुड़िया मैं अपनी कमीज की जेब में डालकर बैग कंधे पर टांग चल पड़ा। अब मुझे बस से सफर करना था इसलिये आराम से चला। बीच रास्ते में टावर के पास बने हट के करीब दो स्कूली छात्र खड़े दिखे। वे स्कूल नहीं गये थे क्योंकि स्कूल का समय निकल गया था। उन्हें शायद स्कूल नहीं जाना था इसी कारण से वे टावर हट के पास खड़े बतिया रहे थे।
उनके नजदीक पहुंचने पर उनमें से एक ने मुझे नमस्ते किया। मैंने उसके चेहरे को गौर से देखा। मैंने पहले वह लड़का नहीं देखा था। मैं उसके साथी को भी नहीं जानता था जिसने बाद में नमस्ते किया।
**** **** ****
ठंड थी जरूर लेकिन सूरज की चमक बरकरार थी। किरणें राहत पहुंचा रही थीं। मेरे कदम उतने तेज नहीं थे जितने आमतौर पर होते हैं। कारण साफ था कोई जल्दी नहीं थी। आराम से जाना था।
एक बात मजेदार होती है कि जब मैं किसी स्टोरी के लिये जाता हूं तो समय की पाबंदी को ध्यान में नहीं रखता लेकिन एक तरह का दवाब मेरे ऊपर हो सकता है।
पुल के निर्माण को करीब से देखने के लिये कुछ मिनट वहां बिताये। दो हिस्से बनने हैं। पिछले साल से काम जारी है। तेजी गर्मियों में पकड़ी है। अगले साल तक पुल बनकर तैयार हो जायेगा। यह उम्मीद हर गजरौलावासी लगा रहा है। अभी लंबी दूरी तय करनी पड़ रही है। समय का खर्चा ज्यादा है।
बस का इंतजार नहीं करना पड़ा। यात्री अधिक नहीं थे। सीट मिलने में परेशानी नहीं हुई। इसके विपरीत ट्रेन में अनेक बार घंटों खड़े होकर यात्रा की है। टांगों का मुझे पता है। किसी भी सूरत में वह यात्रा प्रताड़ना से कम नहीं हो सकती।
कोहरा न होने के कारण बस अपनी रफ्तार में थी। एक जगह जाम लगा था। बस लगभग आधा घंटा खड़ी रही। मैं उतरकर देखना चाहता था लेकिन किसी का फोन आ गया। वह मेरा पुराना मित्र था। उसे कहीं से मेरा नंबर मिल गया था। बहुत देर तक हमारी बातचीत होती रही। स्कूल के दिनों ले लेकर बाल-बच्चों तक की बात होती रही। उसकी शादी हुये दो साल बीत गये लेकिन मेरा विवाह अभी हुआ नहीं।
उसका वह सवाल बहुत अटपटा लग जब उसने पूछा -"तुम्हारे बच्चे कितने हैं?"
मैं कुछ देर बाद बोला कि जब शादी होगी तब बात करना।
वह जोर से हंसा और बोला -"तुम नहीं बदले।"
जब उसने "बाय" कहकर फोन काटा तो मैंने कंडक्टर से पूछा कि कोई दुर्घटना हुई है क्या।
वह बोला कि कोई ट्रक पलट गया है। क्रेन अपना काम कर रही है।
मैंने सोचा कि बाहर चलकर देख लिया जाये। तभी दूसरा फोन आया। इसबार फोन घर से आया था। परिजनों को मेरी फिक्र कुछ ज्यादा रहती है। उन्हें जाम होने की सोचना मिल गयी थी। खैरियत पूछ रहे थे।
कुछ देर में बस चल पड़ी।
**** **** ****
हम मुश्किल से चार-पांच किलोमीटर चले होंगे कि बस का टायर पंक्चर हो गया। लो हो गयी यात्रा पूरी। मैं नहीं यह लगभग बहुत लोग सोच रहे होंगे जिन्हें लंबी दूरी तक जाना था। मैं किसी दूसरे वाहन से भी जा सकता था। कोई टैंपो या अन्य वाहन से मुझे सफर तय करने में परेशानी न होती क्योंकि मेरी यात्रा चंद किलोमीटर की शेष थी।
ड्राइवर और कंडक्टर ने फुर्ती दिखाई और एक मेकैनिक की सहायता से टायर बदल दिया। पंक्चर मरम्मत वाला एक खोखा करीब ही था। बस चली तो एक यात्री पीछे छूट गया। वह चिल्लाकर कुछ दूर दौड़ा। फिर गाली देता हुआ बस रूकने पर उसमें सवार हो गया। इसमें गलती उसकी ज्यादा मानी जा सकती है। वह बिना किसी को बताये मोबाइल से तस्वीरें लेने के चक्कर में एक खेत में गुम होते-होते बचा।
मेरे पीछे बैठे एक यात्री ने चुटकी ली, कहा-"शौक तो अपने शहर में भी पूरे किये जा सकते हैं। इन्हें यही जगह मिली थी।"
शायद उस व्यक्ति ने सुन लिया था। वह देखकर गुर्रा रहा था।
ऐसे मजेदार वाकये होते रहते हैं।
उस दिन बस में एक बूढ़ी महिला की अटैची गिरते-गिरते बची। जब वह अपना सामान गाड़ी में लाद रही थी, अचानक बस चल पड़ी। वह पहले चढ़ गयी थी। उसके पास एक अटैची जिसका वजन मेरे मुताबिक बहुत अधिक था और एक कपड़ों की गठरी थी जो भी कम भार वाली नहीं थी।
रिक्शे से सामान लायी थी। रिक्शेवाले ने पैसे मांगे तो "इतने ही रखले" कहा, लेकिन कंडक्टर के कहने पर वृद्धा मान गयी, पर मुंह सिकोड़ लिया। मन में जरूर कंडक्टर को कोसा होगा।
बूढ़ी महिला की मदद मैंने की। उसका सामान ठिकाने पर रखवाया। दो लड़के भी साथ देते रहे जो उसी जगह से सवार हुये थे जहां से वृद्धा बैठी थी।
मेरी मंजिल आ चुकी थी और बस को कुछ समय के लिये वहां रूकना था। मेरा फोन फिर बजा। मैं बात करता हुआ गाड़ी से उतर रहा था कि उस वृद्धा ने मुझसे सामान उतारने के लिये मदद मांगी। मैं मना नहीं कर सकता था।
मेरा सफर बहुत रोचक रहा। घटनायें घटती रहीं। मैं उनका गवाह था। कुछ घंटे कैसे गुजर गये पता नहीं चला।
यात्रायें अक्सर हमें नये लोगों से मिलाती हैं। उनके बारे में हम जान जाते हैं। बहुत कुछ सीखने को मिलता है।
यात्रायें एक तरह से हमें नये अनुभव प्रदान करती हैं। यह दिमाग को खोलने का भी काम करती हैं तथा नई परिभाषाओं को भी गढती हैं।
-लेख व चित्र : हरमिन्दर सिंह चाहल.
सफरनामा की सभी पोस्ट पढ़ें>>