उम्र थकता रेगिस्तान
हवायें रूखी हैं,
गीलापन कहीं उतर गया,
चादरों को ओढ़कर सोने वाले,
शाखाओं पर हरियाली संभाल रहे.
जिंदगी खो गयी कहीं,
किसी कोने से मद्धिम आवाज आ रही,
फैला हुआ झुगमुगा उतरता नहीं दिखता,
हंसी उजड़ गयी.
पत्तों की परतें मिट रहीं,
गुमसुम बैठने की आदत है,
भूलता जा रहा बहुत कुछ,
सन्नाटा पसर रहा सब ओर.
उम्र थकता रेगिस्तान बनने को आतुर,
वे चुप हैं,
बिल्कुल चुप,
क्योंकि ...
बुढ़ापा पुकार रहा हौले-हौले...।
-हरमिन्दर सिंह चाहल.