एक कैदी की डायरी -34

jail diary, kaidi ki diaryशीला की सोच क्या थी, यह पिताजी को मालूम नहीं था। वह केवल स्वार्थ को महत्व देती थी। उसे इससे कोई लेना-देना नहीं था कि किसे क्या फर्क पड़ेगा। वह तो अपनेपन में चूर थी।

एक स्त्री के मन को पढ़ना आसान नहीं। शीला का संबंध एक ऐसे व्यक्ति से था जो अपराधी था और उस समय सलाखों के पीछे था। उसी से शीला को एक बेटा था जिसे वह अपने साथ हमारे घर ले आयी थी।

पिताजी शीला को ढाबे पर मिले थे। वह एक बेबस महिला के रुप में वहां काम मांगने आयी थी। पिताजी को उसपर दया आ गयी। हालांकि ढाबे का मालिक नहीं चाहता था कि कोई महिला वहां काम करे। लेकिन पिताजी ने अपनी जिम्मेदारी पर उसे नौकरी दिलवा दी। ढाबे में एक छोटी कमरानुमा जगह थी जहां वह रहने लगी। उसका काम रसोईघर तक सीमित था। चूंकि पिताजी भी वहीं रहते थे इसलिए उनकी मुलाकात उससे होती रहती। काम इतना ज्यादा रहता कि घर आने का वक्त ही नहीं मिलता था।

धीरे-धीरे नजदीकियां बढ़ने लगीं। फिर मां की मौत के बाद शीला घर आ गयी। शीला ने जो भी झूठी कहानी पिताजी को बताई हो, वे उसे सच मान बैठे।

इंसान ने इंसान को छल लिया था। झूठ की चमक इतनी थी कि सच उसके सामने फीका लगता था। सच्चाई तो मानो चिल्ला रही थी, मगर उसकी आवाज को शीला ने दबा दिया था। एक बार फिर सच का सरेआम कत्ल हो गया था। कितनी आसानी से लोग झूठ बोल जाते हैं, और हम उसे सच मान लेते हैं।

अगर आप किसी पर हद से ज्यादा यकीन कर लेते हैं तो यकीन टूटने पर आपकी जिंदगी में बहुत कुछ बदल जाता है। हमारा जीवन मुस्कान से बचने की कोशिश करता है। हमें पता होता है कि एक मुस्कराहट ने हमारे जीवन को बदला था और हमारा संसार खुशियों से भर गया था। अपनेपन से भरी थी वह मुस्कान। बाद में पता चला कि उसके पीछे की कहानी अजीब थी। हम ठगे जा चुके थे। हमारी दुनिया लुट चुकी थी। हृदय के टुकड़े होकर बिखर चुके थे। मन फिर निराश था।

to be contd...

-Harminder Singh


पढ़ें पिछली पोस्टें