हालातों को करीब हम खुद लाते हैं। हालात हमसे नहीं कहते कि हमें अपने साथ लेकर चलो। सोचने दो, मुझे बहुत कुछ सोचना है अभी। शायद पूरी जिंदगी सोचता ही रह जाऊं। काश, काश मैं कुछ कर पाता। अब क्या हो सकता है? नये जेलर ने मुझे घूरा था। उसने मुझे दो बेंत भी मारे। मेरी डायरी के पन्ने उलट-पुलट किये। फिर डायरी को एक कोने में फेंक दिया। मैंने इसका विरोध किया। उसने मेरा दो दिन का खाना रोक दिया। मैं गुस्से में हूं। हालातों के हाथों मजबूर इंसान भला कर भी क्या सकता है। हां, मैं यहां इतना अदना सा हो गया हूं, कुछ भी तो नहीं कर सकता। दीवारें हैं, इंसान हैं। उनके बीच में अंजानों की तरह नियति को कोस रहा हूं। चुप हूं क्योंकि यहां चुप रहने में ही भलाई है, सहने में ही भलाई है। एकांत नहीं है, मन शांत नहीं है। कठोरता और क्रूरता की आदत को रोकना नामुमकिन है। इन्हें मुस्कराना, प्रेम से पेश आना किसी ने नहीं सिखाया। जेलर के व्यवहार से मैं काफी निराश हूं क्योंकि मैं विवश भी हूं। विवशता में इंसान बंधे हुए हाथों का हो जाता है। उसका हौंसला सिर्फ चिल्लाता रह जाता है, बौखलाता रह जाता है, लेकिन अंदरुणी फड़फड़ाहट को सुनने वाला कोई नहीं होता है। केवल हम स्वयं ही सह जाते हैं, सहते रह जाते हैं। एकटक निहारते रह जाते हैं, इतना कुछ कहना चाहते हैं, कह नहीं पाते। मन घुटता रहता है और इसका निदान कहीं नजर नहीं आता। उपाय ढूंढते हुए..................बस कुछ हासिल नहीं हो पाता।
-to be contd.
-harminder singh