एक कैदी की डायरी -18

सादाब का मामा उनके घर ज्यादा आने लगा था। उसकी अम्मी खर्च चलाने के लिए पड़ौस के एक घर में चौका-बरतन करने लगी थी। यह उनकी मजबूरी थी।

सादाब के पिता ने जैसे-तैसे कर मिट्टी की ईंटों से चार दीवारें खड़ी की थीं। बाप की जमीन का उतना ही टुकड़ा बचा था जिसपर दीवारें खड़ी थीं।

मामा की नीयत में खोट आता जा रहा था। उसकी नजर गिद्ध की तरह थी। सादाब की अम्मी तीन बच्चों के साथ जहां गरीबी से जंग लड़ रही थी वहीं मामा झपट~टा मारने की बाट जो रहा था। उसमें उतनी चपलता नहीं थी, लेकिन पाशों को फेंकने में वह माहिर था। उसकी आंखें बिल्ली की तरह थीं। सुना जाता है कि ऐसे लोग मौका मिलते ही वार करने से नहीं चूकते। फिर वहां तो शिकार काफी कमजोर व असहाय था। मामा सोच रहा था कि बिना लाठी तोड़े काम बन जाए।
सादाब की अम्मी अपने भाई पर हद से ज्यादा भरोसा करती थी। शौहर की मौत के बाद मजलूम बेवा की तरह जी रही थी वह। अनपढ़ थी, अंगूठा लगाना जानती थी। मामा ने उसे किसी तरह राजी कर लिया। वह उन्हें अपने घर ले आया। कुछ दिन उसने खूब खातिरदारी की, लेकिन एक रात वह घर आधी रात आया। दो आदमी उसको सहारा दे रहे थे। वह नशे में इतना चूर था कि उसकी आवाज उसी की तरह लड़खड़ा रही थी। पास पड़ी चारपाई पर उसे डाल दिया गया। उसकी जेबों से नोट बाहर बिखर गये। बहन ने भाई का ऐसा रुप पहले देखा नहीं था। सादाब की अम्मी घबरा गयी।

रोज का सिलसिला यही होता रहा। अब घर में शाम को जुए और जाम की महफिल सजने लगी। भाई की हरकतों से आजिज आकर सादाब की मां ने साफ कह दिया कि वह उसकी जमीन के सारे रुपये लौटा दे। वह कहीं भी जाकर अपनी और बच्चों की गुजर-बसर कर लेगी। इसपर मामा तन गया। उसने कहा कि रुपये तो खर्च हो गए। जो बचे हैं वह ले सकती है। सादाब की मां मजबूर थी, इसलिए वह कुछ हजार रुपये अपने साथ लेकर बच्चों सहित भाई के घर से निकल गयी।

ऐसा होता है बुरा वक्त जिसका तमाशा जिंदगी को वीरान कर देता है। पति मरा, भाई ने धोखा दिया, और आसरा..........वह भी न रहा। तीन औलादों की किसी तरह परवरिश करनी थी।

उस मां ने किसी तरह ईंट-पत्थर-गारा ढोया, मजदूरी की। बच्चे बड़े होते रहे। मां का हाथ बंटाते रहे। मजदूरी उन्होंने भी की। सादाब ने कई जगह काम किया, मेहनत कर पैसा कमाया। कुछ गज जमीन पर एक कमरा बना लिया। उसकी अम्मी बीमार रहने लगी थी। दोनों बहनों की उम्र शादी को पार कर चुकी थी।

कहीं से अचानक मामा को उनका पता लग गया। वह अपनी बहन को दुखड़ा सुनाता रहा। बीमार बहन को फिर भाई पर दया आ गई। सादाब ने अपने मामा को देखा तो वह बहुत गुस्सा हुआ, लेकिन अम्मी की तबीयत उसका साथ नहीं दे रही थी। अपनी मां के कहने पर सादाब ने मामा को छोटा-मोटा काम दिलवा दिया। सुबह जाकर मामा शाम को आता।

रुखसार की शादी का इंतजाम सादाब कर रहा था। उसके ब्याह के लिए लड़के की तलाश जारी थी। संयोग से योग्य लड़का मिल गया। वह काफी भला था और अच्छा कारीगर भी। कमाऊ और मेहनती दामाद मिल जाने की आस कब से दिल में लिए थी सादाब की अम्मी। सपना पूरा होने जा रहा था।

कभी-कभी जिन घटनाओं का हम खूब इंतजार कर रहे होते हैं उनमें खलल पड़ जाने की टीस बड़ी होती है। सादाब की अम्मी की तबीयत बिगड़ रही थी। इलाज से कोई फायदा मिलता नहीं दिख रहा था। एक चारपाई पर वह पड़ी रहती। उसकी खांसी कम नहीं हो रही थी। उसके कदम धीरे-धीरे ही सही, ऐसा लगता था जैसे मौत की ओर बढ़ रहे हैं।

सादाब रुखसार को बाजार से कपड़ा दिलाने गया था। जीनत ने जाने की जिद की। मामा ने कहा कि वह घर पर ही रहेगा। उसने यह भी कहा कि अपनी बहन की उसे बहुत फिक्र है। यदि वह पानी या दवा मांगेगी तो वह उसके पास होगा। अपनी बहन के लिए वह एक दिन काम पर नहीं गया कोई पहाड़ थोड़े ही टूट जायेगा। पहले बहन है, बाद में उसका काम।

तीनों के जाने के बाद मामा की खुराफात शुरु हो गई। उसने सामने रखी संदूक पर नजर दौड़ाई। उसपर ताला लटका था। अपनी बहन से उसने चाबी मांगी। बहन ने इंकार कर दिया। मामा ने जबरदस्ती करनी चाही। मामा ने उसके चेहरे पर आवेश में आकर एक तमाचा जड़ दिया। सादाब की मां बेहोश हो गयी। मामा ने पूरे घर में सामान उलट-पुलट दिया। एक-एक कपड़े को झाड़कर देखा, चाबी कहीं नहीं मिली। बाहर से ईंट का टुकड़ा लाकर उसने संदूक का ताला तोड़ दिया। सादाब ने कुछ हजार रुपये और सामान उसमें रखा था। मामा ने एक गठरी में सब भर लिया। सादाब की अम्मी को होश आ चुका था। वह उठ तो नहीं सकती थी, लेकिन देख सब रही थी। हल्की आवाज में उसने गठरी बांध रहे भाई से कहा कि अल्लाह की शर्म करो। सादाब ने जैसे-तैसे कर रुपये इकट~ठा किये हैं, रुखसार के हाथ पीने होने से रह जायेंगे। बिरादरी सामने उनकी क्या इज्जत रह जायगी?

मामा ने गठरी बांध ली। उसे डर था कहीं उसकी बहन शोर न मचा दे। उसने उसके मुंह में कपड़ा ठूंस दिया और हाथ-पैर चारपाई से बांध दिये। सारा सामान लेकर चला मामा चला गया। बहन की आंखों से आंसू झरझर बह रहे थे। इसके अलावा वह कर भी क्या सकती थी?

लोग कितने मतलबी होते हैं। दुनिया में रिश्तों का खून अक्सर होता रहता है। कोई किसी का अपना नहीं, सब मतलब के यार हैं। रिश्ते निभाना कौन जानता है? कोई भी तो नहीं। जिसका बस चलता है, वह काबिज होने की कोशिश करता है। कमजोर को जितना अधिक कुचला जाए, उतना कम है। भाई के लिए बहन केवल कहने के लिए हैं। सादाब का मामा सही मायने में भ्रष्ट और क्रूर इंसान था। उसे सिर्फ खुद से वास्ता था।

सादाब ने बताया कि जब वह घर लौटा तो उसके होश उड़ गये। रुखसार ने सबसे पहले अम्मी को संभाला। हाथ-पैर खोले तथा पानी पिलाया। रुखसार और जीनत दोनों अम्मी से लिपटकर बहुत रोयीं। सादाब इतने गुस्से में था कि मामा को ढूंढने निकल पड़ा। रुखसार ने उसे रोकना चाहा, पर वह रुका नहीं।

सादाब को क्रोध इसका अधिक था कि उसका मामा बिल्कुल बदला नहीं था। कुछ पैसों के लिए अपने ईमान को खराब कर गया। उसके लिए पैसा ही सबकुछ है। कितना गिरा हुआ इंसान है वह? तमाम विचार सादाब को और उत्तेजित करते रहे। तिराहे की एक पान की दुकान पर आकर वह रुका। उसने देखा सामने सड़क पर एक आदमी गठरी लेकर जा रहा है। सादाब उसके पीछे-पीछे चल पड़ा।

सड़क किनारे रोशनी नहीं थी, रात हो चुकी थी। चंद्रमा की चांदनी उतनी साफ नहीं थी। वह आदमी सादाब को अपने मामा की तरह लग रहा था। सादाब ने कदमों को तेज किया। वह आदमी शायद भांप गया था। उसकी चाल भी तेज हो गई। अचानक वह दौड़ने लगा।

सादाब चिल्लाया,‘मामा रुक जाओ।’

सादाब भी दौड़ पड़ा। सादाब को पक्का यकीन हो गया था कि वह मामा ही था। वह व्यक्ति नजदीक के रेलवे स्टेशन की ओर भागने लगा। सादाब ने तेज दौड़कर उसे पीछे से पकड़ लिया। उसने गठरी सादाब के मुंह पर मारी और भागने लगा। लेकिन सादाब उसका पीछा कहां छोड़ने वाला था। वह कंधे पर गठरी टांग मामा के पीछे दौड़ा।

मामा पटरियां-पटरियां दौड़ रहा था, सादाब उसके पीछे। जैसे-जैसे कदम तेज हो रहे थे, थकान बढ़ती जा रही थी और सांस तेज। मामा को ठोकर लगी। वह गिर पड़ा। उसका चेहरा पत्थरों पर लगने से बुरी तरह छिल गया। सादाब ने मामा को उठाना मुनासिब न समझा। गठरी को किनारे रख दिया। उसे कहीं से एक लोहे का सरिया हाथ लगा।

क्रोध की सीमा जब पार हो जाती है तो इंसान एक अलग रुप में नजर आता है। सादाब के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था। उसने मामा पर सरिये से प्रहार शुरु कर दिया। मामा अपने भांजे से दया की भीख मांगता रहा। अपने पापों को कुबूल करता रहा। अपनी बेटियों की दुर्गति की जिम्मेदारी भी उसने ली। लेकिन सादाब उस जड़ को ही खत्म करने का इरादा किये था।

मामा चीखता रहा पर सादाब रुका नहीं। लोगों की भीड़ जमा हो गयी। जबतक पुलिस आई तबतक मामा अंतिम हिचकी ले चुका था।

कुछ समय पहले की दौड़ निर्णायक मोड़ पर आकर समाप्त हो गयी। एक चलता पुर्जा अब लाश में तब्दील हो चुका था। न वह बोल सकता था, न सुन सकता था, न देख सकता था जबकि उसके चारों ओर जो भीड़ जमा थी, वह यह सब कर सकती थी, तभी वह शांत था और लोग अशांत।

मामा के पापों की कहानी उसी के साथ समाप्त हो गयी। सादाब को हत्या के जुर्म में जेल में डाल दिया गया।
’वे कहते थे कि मैंने एक निर्दोष की हत्या की है। जबकि मैं जानता हूं कि मेरा मामा कितना नीच था। उसे न मारा जाता तो वह कई पाप और करता। जिसने पत्नि, सगी बेटियों, बहन को दुख दिया हो, वह जीने के काबिल नहीं।’ यह कहकर सादाब चुप हो गया।

मेरा मन कर रहा था कि मैं उसे सांत्वना दूं, लेकिन मैं रुक गया।

हम दूसरों को देखकर कई बार खुद दुख महसूस करने लगते हैं। इंसान होने और न होने में यही फर्क है। हमारा संसार जैसा भी रहा हो दूसरों के संसार को संवारने की कोशिश मेरे जैसे लोग करते हैं। मुझे एहसास हुआ कि दर्द को सीने में दफन करना उतना आसान नहीं। कभी न कभी वह उभर ही आता है। परेशान आदमी फिर दिल को खोलकर रख देता है। मेरी कहानी का सच आना बाकी है। मैं फिलहाल चुप हूं। मैं नहीं चाहता कि मेरे जख्मों को हवा लगे। दुखती रग पर हाथ जाने से सब डरते हैं। मुझे थोड़ी खुशी इसकी है कि कोई तो मिला जो वास्तविकता को बता गया मुझपर भरोसा कर।

-to be contd....


-Harminder Singh