एक कैदी की डायरी- 25

मुझे धीरे-धीरे कई बातें समझ आने लगी थीं। नाना-नानी को यह सब अच्छा नहीं लगा। उन्होंने पिताजी को काफी समझाया, पर वे कहां मानने वाले थे। हम जानते हैं कि आंखों के आगे जब परदा टंग जाता है तो कुछ नजर नहीं आता। जबकि सारी कहानी सामने चल रही होती है, फासला बस परदे का होता है। आखिर परदा, परदा होता है।

नाना ने कहा,‘परायी महिला बच्चे को मां का सुख नहीं दे पायेगी, मां तो मां होती है। ऊपर से वह एक बच्चा अपने साथ लायी है, उसका क्या? अपने इकलौते बेटे की परवरिश में शारदा कोई कमी नहीं छोड़ती थी। तुम्हें मां-बाप, दोनों का फर्ज निभाना चाहिए।’

पिताजी ने दो टूक शब्दों में कहा कि वे शीला को इस घर से बाहर नहीं कर सकते। उनका कहना था कि मुझसे वे प्यार करते हैं, आखिर मैं उनका खून हूं।

नानी दादी के पास घंटों बैठी रही। दोनों के चेहरे पिघले हुए थे और मुद्रायें गंभीर। सिर झुकाये थीं, कुछ शब्द चुप्पी को तोड़ते थे। मैं नानी के पास बैठा था। उनके हाथ को मैंने पकड़ रखा था। मेरी आंखें चुपचाप थीं और चेहरा बिल्कुल खुश नहीं था।

हमारे आसपास जब बहुत कुछ अच्छा नहीं चल रहा होता, तो खिलखिलाहट पर विराम लगने में देर नहीं लगती। रौनकें सिमटने में समय भी तो नहीं लगता। खुशियां इकट्ठी होती रहती हैं, इसे वक्त जाया करना नहीं कहा जाता। रंज का एक हल्का झोंका पल भर में सब काफूर कर देता है। मैंने जब भी हंसने की कोशिश की, मुझे रोक लिया गया। वक्त मेरे साथ मजाक करने से चूका नहीं। मैं प्यार चाहता था -मां और बाप दोनों का। दुलार चाहता था और उनसे नजदीकी और न बिछुड़ने का वादा।

वादे टूट जाते हैं। हम निराश हो जाते हैं। वादों को निभाना भला कौन जानता है? विदाई जब अंतिम हो तो सच्चाई से सामना जरुर होता है। एक दिन डर लगता है क्योंकि मोह की जकड़न से पीछा छुड़ाना उतना आसान नहीं। हम भूल जाते हैं कि हमें जाना है, फिर कभी न आने के लिए और दूर, इतनी दूर कि जहां से कोई कभी वापस नहीं आया। संसार को त्यागना पड़ता है और सच कभी झूठ नहीं होता। कसमें और वादे यहीं आकर नहीं निभाये जा सकते।

मेरी मां मुझे छोड़ गयी। उसने वादा नहीं निभाया। मैं बर्दाश्त कर गया उस घड़ी का दर्द क्योंकि मैं जान गया कि उसका वादा यहीं तक था जो उसने अंतिम सांस तक निभाया।

to be contd....

-Harminder Singh