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पास रखी एक किताब के पन्ने पलटते हुये काकी कहती है,‘मैं किताबें बहुत खुशी से पढ़ती थी। स्कूल की किताबों के एक-एक अक्षर को मैं जोड़ कर रखती, कभी भूलती नहीं। आज भी कई कहानियां, कविताएं याद हैं जिन्हें शायद ही कभी भूल पाऊं। कोरे कागज पर कलम चलाने का एक अदभुत आनंद था जिसकी सीमा अनंत थी। वह दिन खुशी के थे। मेरी किताबें मेरे पास नहीं, उनका सबकुछ मैंने यहां समेट रखा है।’ काकी ने अपना जर्जर हाथ अपने कमजोर माथे पर रखा।
काकी की बातों में इतना खो गया था कि खुद को भूल गया। कल्पनायें करते-करते मेरी आंख लग गयी। सुबह मेरी नींद टूटी। मैंने खुद को काकी के पास पाया। काकी मेरी बालों को सहला रही थी। यह स्नेह था जिसे परिभाषित करने में युग बीत जायें पर इस धारा को अविरल बहने से कोई रोक नहीं सकता।
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प्रेम एक बंधन में बंधा होता है जिसकी डोर मजबूत होती है। एक-दूसरे से जोड़े रखता है प्रेम का बंधन। हम न चाहते हुये भी उससे छूट नहीं सकते। मोह का खेल पुराना नहीं, नया भी नहीं, यह रिश्तों के अदभुत संगम के बाद उत्पन्न हुआ है जो बिना दिखे बहुत कुछ कह जाता है। उन अनछुए पहलुओं से भी हमारा सामना करा देता है जिन्हें हम भूल चुके थे। अनजाने में इतना सब घट जाता है कि उसे सोचना अजीब था। बुढ़ापे का प्रेम अधिक पिघला हुआ होता है। इस समय सूखे रेगिस्तान में एक बूंद भी सागर बहा देती है। थकी आंखें जिनकी नमीं कब की सूख चुकी, हरी-भरी दिखाई देती हैं। बुढ़ापे को और चाहिये ही क्या? इतना सब तो मिल गया उसे।
-Harminder Singh
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