ये दिन ऐसे ही बीतते रहेंगे

कभी-कभी खुद से हताशा बहुत होती है। इस कदर होती है कि सोचना भी मुश्किल हो जाता है। यह जीने का तरीका है या जिंदगी एक बोझ की तरह हो गयी है। दिमाग अपना संतुलन खोता जा रहा है या मैंने उसे ऐसा बनने पर मजबूर कर दिया। यह भी नहीं समझ पा रहा कि हकीकत क्या है? यह भी समझ नहीं आ रहा कि जिंदगी यूं ही चलती रहेगी, धीरे-धीरे, कभी सुस्ती से चलती हुई, कभी तेजी से। कभी हरी-भरी तो कभी रुखी-सूखी। इतना कन्फयूशन है-सबकुछ समझ से परे।

  खुद को बोर होता हुआ देख रहा हूं। ऐसा लग रहा है जैसे कुछ हासिल होने वाला नहीं। ऐसा भी लगता है जैसे सबकुछ गंवा दिया और कुछ पाया ही नहीं। यह है क्या?

  होने को बहुत कुछ हो रहा है और न होने को कुछ भी नहीं। लड़ाई किस शक्ल को हासिल करती जा रही है, मालूम नहीं। सोच रहा हूं यहां से कहीं दूर चला जाऊं उस मुकाम की ओर जो पहले से कभी तय नहीं था। बेहिसाब मोड़, अनजाने रास्ते, हरे-सुनहरे पलों की यादों को समेटे हुए मैं अकेला। हैं जाने कितने मेरे साथ, पर लगता सब नीरस ही है।

  हौंसला वापस आये इसलिए मैं किसी ऐसे शहर, ऐसे लोगों के बीच जाना चाहता हूं जहां सबकुछ बदला हुआ हो। यानि बदलाव चाहता हूं मैं। वरना यही सोच कायम रह जायेगी कि ये दिन ऐसे ही बीतते रहेंगे।

कुछ पंक्तियां उभरी हैं:

‘‘जिंदगी जो सच है
कह रही हमसे यूं ही,
बीत जायेगी जाने कब
पता कहां चलेगा?’


-Harminder Singh