बुढ़ापा और बूढ़े काका

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सुबह बूढ़े काका से चाय पर फिर मुलाकात हो गयी। वे बोले,‘जिंदगी नरम लगती है, कभी चाय के प्याले से उड़ती भाप।’

उन्होंने कहा,‘मुझे खुद से अनेक बार प्रश्न करने का मौका मिला। मैं हंसा भी और मुस्कराया भी। आसमान की थकान को खुद में समेटा, जीभर समेटा। महसूस किया कि जिंदगी निराश सौदागर की तरह भी होती है। पहलू हैं, कमजोर, उदास, उजड़े हुए मेरी तरह। चमक, तेजी, भरोसा अधिक तुम्हारी तरह। जो बातें मैं बिल्कुल नहीं समझ पाया कि शुरु कहां से करुं, खत्म किधर से हो। संशय की रेखायें सूखी परतों पर तैर रही हैं।’

मैंने चाय की चुस्की लेते हुए काका को देखा। वे अपने माथे की सिलवटों को उधेड़बुन की शाला में पाते हैं जहां गिरगटों की जोड़ियां कभी रंग तब्दील किया करती थीं। वे एक अनजान शहर के परिंदे की तरह हवा में गोता लगाते हुए डरते हैं कहीं कोई शिकारी परिंदा उसी की शक्ल का, वही हैरान करती आंखों की तरह उसे गिरा न दे।

काका अचानक मुस्कराये, और बोले,‘लेकिन एक बात जो सबसे मजेदार है बुढ़ापे में कि भागदौड़ नहीं करनी पड़ती। मुझे कोई कहता भी नहीं। आराम है तो सही, लेकिन इससे बोरियत होती है। मगर हां, बूढ़ी उम्र में दौड़-भाग की भी नहीं जा सकती।’

मुझे काका की जिंदादिली मालूम है। सुबह टहलना, जिंदगी की बातें करना, सबक देना, उन्नत विचारों को समझाना। मैं मां को भी कहता हूं कि बूढ़े काका की बातें मेरे जैसे इंसान को किसी नये संसार में विचरण करने पर विवश कर देती हैं। मां ही नहीं हर किसी ने पहले भी कहा है कि मैं सोचता बहुत हूं। मेरी दुनिया सोच पर टिकी है। मैं भी कहता हूं कि हर किसी की सोच पर दुनिया टिकी है, और दुनिया सोचने वालों के लिए बनी है। सोचना बंद करना नामुमकिन है, क्योंकि दुनिया तो सोच पर टिकी है। यह थोड़ा भ्रम में डालता है, पर सोच कर तो दुनिया चलती है।

काका ने बुढ़ापे को एक आकार दिया है। उनके विचारों का संसार और उसमें उलझे ढेरों अनसुलझे सवाल। बूढ़ी काकी की तरह काका भी अपने बुढ़ापे की बातें करते हैं। वास्तव में यह खुद को समझने की कोशिश ज्यादा है। यह कोशिश है बुढ़ापे को जानने की ताकि बुढ़ापा वह न लगे जो समझा जाता है।

बुढ़ापा जीवन का सच है, लेकिन एक सच यह भी है कि बुढ़ापा जीवन की गति है। वह मंद नहीं पड़ सकता क्योंकि बूढ़े विचार नहीं हो सकते, जीवन बुढ़ापे पर खत्म जरुर होता है।

-हरमिन्दर सिंह चाहल.

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