धीरे-धीरे खत्म हो रहा हूं मैं

गोता लगाती जिंदगी में बुढ़ापा सब देख रहा है। नजरें धुंधली हैं, लेकिन बूढ़ी आंखें पढ़ रही हैं जिंदगी का तानाबाना और चहकती हुई जिंदगी के रेशों की बनावट को। वक्त बदल रहा है। बदल रही हैं राहें जहां कभी जोश और मुस्कान टोकरी भर मिलती थी। बिखरे होते थे फूल जिनकी महक दिनों तक न जाती थी। सच में मन हर्षाता था। जीवन गीत गाता था। बहते थे प्रेम के झोंके भी। नदियों से गुजरती ठंडक को महसूस करता था जीवन।

अब लड़खड़ाते कदमों के निशान बन रहे हैं रेत पर। यही वही रेत है जो कभी गीली थी, आज सूखी है। महीन नहीं, कर्कश है। बेदर्द सूरज की तपिश ने रुखापन दिया है। चमके कांच की चांदी सी परतें फिर भी सुहानी लग रही हैं। जी रहा हूं मैं, सच में जीवित हूं मैं। महसूस किया है मैंने।

लकीरों की कहानी शानदार इतिहास के साथ संजोयी गयी है। गहराई है, अंतहीन गहराई। एक परत, दूसरी परत, तीसरी परत और ढेरों परतों के बीच कुलांचे मारती बूढ़ी हंसी। है न अजीब, बेजान बात।

मन करता है जीवन छोड़ दूं। मन करता है कहीं दूर जाकर बस जाऊं। भला ऐसी भी कोई जगह होगी जहां जीवन बांधा नहीं जाता। ऐसी जगह जहां सभी सीमायें खत्म हो जाती हैं। शायद जीवन भी। ढूंढ रहा हूं। मेरी खोज जारी है।

भटका हुआ जीवन और सहारा, रोता हूं कभी-कभी। मन भर आता है। अपनों का स्मरण नहीं छूट सकता। मेरा हृदय भीग रहा है। दर्द फिर उभर रहा है। भाव उबल रहे हैं। उथलपुथल को बहुत कोशिश के साथ सिरहाने से झाड़ रहा हूं।

ऐसा लगता है जैसे बुदबुदाते हुए मेरा जीवन सरक रहा है। वक्त की कोंपलों में फूल अब नहीं खिल सकते। शायद कोपल ही न रहें। शाखायें बेजान हैं। धीरे-धीरे खत्म हो रहा हूं मैं, धीरे-धीरे।

-हरमिन्दर सिंह चाहल.

My Facebook Page       Follow me on Twitter