बुढ़ापे की ख्वाहिश नहीं होती

बुढ़ापे-की-ख्वाहिश-नहीं-होती

‘उम्र से मैंने बहुत सीखा है। वक्त के साथ मैं सीखती गयी। अनगिनत पड़ावों को पार किया और अनुभव ढेरों उपजाये।’ बूढ़ी काकी बोली।

मैंने काकी से पूछा,‘बुढ़ापे की कभी ख्वाहिश थी?’

काकी मुस्करायी। मेरी ओर देखा। आंखों को पूरी तरह खोलना चाहा, लेकिन वह नामुमकिन था। उसने धुंधली होती आंखों से मुझे देखा। पलकों को झपकाया।

बूढ़ी काकी ने कहा,‘बुढ़ापा आता है। वह आयेगा ही, चाहें इंसान कुछ भी कर ले। उससे बचा नहीं जा सकता। जीवन है तो मरण है। जवानी है तो बुढ़ापा है। जो तय है, वह अनिवार्य है। नियम है तो नियम है।’

‘जवान होने पर सुख हो सकता है। बूढ़ा होने पर दुख हो सकता है। जीवन का चक्र ऐसा बना हुआ है कि हम चीजों को समझने में जीवन गुजार देते हैं या नासमझी में। एक बात तय होती है कि वक्त बीतता जाता है, अनुभव एकत्रित होते जाते हैं। इतना है कि अनुभव के साथ सोच में परिवर्तन आ जाता है। व्यवहार में बदलाव होता है और न जाने क्या-क्या बदलता है। एक चीज नहीं बदलती है और वह है उम्र का बढ़ना। साथ ही जीवन की प्रक्रिया नहीं बदलती।’

‘बुढ़ापे की ख्वाहिश किसी की नहीं होती। कोई नहीं चाहता कि वह बूढ़ा होकर संसार से विदाई ले। कोई नहीं चाहता कि वह जर्जर, कमजोर, झुर्रियों से भरे शरीर के साथ जिये। मैं स्वयं जवान होना चाहती हूं। मेरे सफेद बाल काले हो जायें। वही ताजगी लौट आये जो पहले हुआ करती थी। लेकिन मैं जानती हूं कि ऐसा अब नहीं हो सकता। यह जीवन का सच है कि वह निरंतर है। वह पीछे नहीं मुड़ता, आगे बढ़ता है। इस तरह से बदलाव आते हैं जो स्थाई हैं। लकीरें खिंचती हैं न मिटने के लिए। उनमें वक्त के साथ गहराई सिमटती जाती है।’

मैं सोचने लगा कि वाकई जिंदगी और बुढापा जुड़े हैं। काकी ने ख्वाहिश नहीं की कि वह बूढ़ी हो, लेकिन जीवन जिया है तो जिया जायेगा।

उम्र कठोर नहीं है, न ही बुढ़ापा। हमारी सोच भी उम्र को बदलती है। उम्रदराज होते हुए भी वह एहसास न किया जाये तो उसमें कोई बुराई नहीं, बल्कि यह जीवन के जीने का तरीका है। शायद स्वयं को विश्वास में लेकर बुढ़ापा बोझिल नहीं लग सकता।

-हरमिन्दर सिंह चाहल.

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