एक कैदी की डायरी - 2



रिश्ते इंसान को तोड़ते भी हैं और जोड़ते भी हैं। मैं आज खुश नहीं हूं क्योंकि मेरी पत्नि, बच्चे हैं। एक जुड़ाव–सा है उनके साथ। ना संबंध होते, न दुख होता और न याद होती। तड़प के साथ क्षोभ जुड़ा होता है जिसका अनुभव आज मैं कर रहा हूं। हर इंसान की ख्वाहिश होती है कि वह खुलकर जिये और इतना जिये कि जिंदगी कम पड़ जाए। ऐसा होता है, मगर उलझनों के साथ जुड़े वक्त को समेटना उतना आसान नहीं। कमजोर, और कमजोर बनाते हैं रिश्ते। यह अकेलेपन का अहसास कर मुझे पता लगा। सूनापन किसी कोने में थका–मांदा, चेहरा लटकाये पूछ रहा है कि महाशय को क्या हुआ? सन्नाटा क्यों पसरा है बिना मतलब का?

मैं किसी से प्यार नहीं करता। प्रेम शब्द मेरे लिए कोई अर्थवाला नहीं रह गया क्योंकि मैंने सच्चाई जान ली है। ऐसे लोगों से मुझे घृणा हो रही है जो संबंधों के दायरे में जीते हैं। मूर्ख हैं वे लोग और उनके वादे। असमंजस में मैं भी हूं, लेकिन हकीकत से उनका सामना अभी हुआ नहीं है। मेरा अपना मत जरुर है पर पशोपेश आड़े आ रहा है। आखिर मतलब क्या रह जाता है उलझन का। सुलझ चुके विचारों को फिर से उलझाने की कोशिश स्वत: ही होती जा रही है। धुंध छंटने देने की कल्पना मन में की है। कोहरा घना हो तब भी कल्पनाएं विचरती हैं। यहां ऐसा ही कुछ हो रहा है।

रिश्तों की डोर टूटने को बेताब है। मुझे यकीन हो चला है कि इन्होंने मुझे कमजोर किया है। समय दर समय मेरी टांग पकड़ कर खींची है। हां, मुझे गिरने नहीं दिया, संभाला भी है। तो गिरने से बचाते हैं रिश्ते। नहीं, नहीं, मैं अपना ध्यान बंटा रहा हूं। मैं ऐसी माला नहीं पहन सकता जिसकी डोर कमजोर हो, कभी भी टूट कर बिखर जाए। यह अनोखा कार्य नहीं कि इंसान किसी न किसी से जुड़ता है। जुड़ाव जीवन का हिस्सा है, भाव इसके साथी हैं। लेकिन अकेला चलने में क्या बुराई है। शायद कुछ नहीं, कुछ भी तो नहीं।

ऐसे संबंधों का लाभ भी हो जो कभी टूटे नहीं। पर ऐसा होता नहीं। रिश्ते दुखी भी करते हैं और हृदय को विचलित भी। मैं अब आदत डाल चुका कि मेरा कोई अपना नहीं, सगा नहीं। अकेला हूं, मैं, बस मैं ही हूं। बच्चों को भूलने की दृढ़ इच्छा मुझे अधिक व्याकुलता में नहीं डालती। समय तो बदलेगा– किसी को इतनी आसानी से थोड़े ही भूला जा सकता है। यदि कोई कलेजे का टुकड़ा हो, जिसपर आप स्वयं को न्यौछावर कर सकते हों, संसार का सबसे प्यारा हो, उसे स्मरण में न फटकने देना बहुत मुश्किल काम है। हम ऐसा कम ही कर पाते हैं। हर काम सरल भी तो नहीं।

मेरी बिटिया बड़ी प्यारी थी। उसका चेहरा किस तरह भूलूं। अभी रिश्तों की माला को बिखेर रहा था, अचानक जोड़ने की बात करने लगा। यहीं आकर इंसान हार जाता है, कमजोर हो जाता है। सच है कि रिश्ते इंसान को बेबस कर देते हैं। वाकई बेबस से भी बेबस हो गया हूं मैं। मेरी नियति है वियोग के आंसू पीना, सो पी रहा हूं। मेरी नियति है चैन से नहीं जीना, जो नहीं जी रहा हूं। दीवारों को अपना मानता हूं, पर वे कुछ बोलती नहीं।

लाजो मेरी पत्नि जिससे मैंने सात जन्मों तक साथ निभाने का वादा किया था। ऐसा ही कुछ उसने भी कहा था। हमारा बंधन प्यारा था और अटूट भी। मुझे कभी एहसास नहीं हुआ कि दूरियां इतनी दुश्वारियां लाती हैं। आज जब सब मेरी आंखों के सामने बिखर रहा है तो मैं रो रहा हूं। मेरा हृदय करुणा से भर उठता है। वियोग का दर्द खुद को कचोटता है कि व्यक्ति की दशा किसी मृत के समान हो जाती है। बहुत पीड़ादायक है यह समय, लेकिन इसका मंथर गति से चलना कष्टों को और बढ़ा रहा है। लाजो ने मुझसे कहा था कि बच्चे मुझे भूल नहीं पाये हैं। तब मैं फूट–फूट कर रोया था। हमारे बीच सलाखों की दीवार थी। उसने मेरे हाथों को जकड़ लिया और अपने माथे से लगाकर कहने लगी,‘यह सब क्यों हो रहा है? ईश्वर तरस नहीं खाता क्या? हम गरीबों की कोई सुनता कहां है?’

ठीक कह रही थी वह। गरीब होना संसार का सबसे बड़ा अपराध है। कहां नहीं गई वह, सारा खेल पैसों का है। पुलिसवालों ने उसे दुत्कार लगाई। काफी कुछ सहना पड़ा उसे। वह दिल की अच्छी है। पर बहुत समय से वह मुझे मिलने क्यों नहीं आई? शंका होती है मुझे..........कहीं कुछ ऐसा–वैसा.........नहीं.............नहीं। भला ऐसा कैसे हो सकता है? मेरा मन नहीं मानता। समय पुराना हुआ तो क्या हुआ, मेरा लगाव उतना ही है।

-जारी है........

-harminder singh