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बूढ़ों की जिंदगी देखकर हमें हैरानी होती है। वे भी हमारी तरह इंसान हैं, लेकिन उनकी दुनिया हमारी दुनिया से मेल नहीं खाती। उनकी दुनिया रुक-रुक कर चलती है, जबकि हमारी दुनिया में सबकुछ सरपट दौड़ता है। यहां जवानी कुलांचे मारती है। यह वह दुनिया है जो बूढ़ा होना ही नहीं चाहती।
जर्जर काया वाले बेचारे हैं। चुप हैं। खामोशी में लिपटे हैं। उनके कंधे झुक गये हैं। बेबस इंसान की शक्ल में हैं। लाचारी मंडराती है। सूनापन काटने को दौड़ता है। जिंदगी कैदखाने से भी बुरी जगह मालूम पड़ती है।
उम्रदराजी की जिस चादर को बूढ़ों ने ओढ रखा है वह वक्त के साथ वजनी हो रही है। कमजोर कंधे जैसे-तैसे शरीर के साथ जुड़े हैं। उनकी दशा भी दयनीय हो रही है।
हम देख रहे हैं बुढ़ापे को सरकते हुए। सोच नहीं रहे कि बूढ़े हम भी होंगे इक दिन.
-Harminder Singh
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