मैं खामोश हूं। खामोश ही रहना चाहता हूं। किसी के बारे में क्या सोचूं, यहां खुद ही से फुर्सत नहीं।
सोचता हूं, यह उम्र ढलती क्यों है। क्यों होते हैं लोग बूढ़े?
प्रश्न अजीब जरुर हैं, लेकिन हैं सच।
मेरी टांगे लंबा अर्सा हो गया कांपती हैं। अरे भाई, मैं जापानी नहीं। इस उम्र में भी हंसी बचाकर रखी है मैंने। वक्त आने पर कुरेदने की जरुरत नहीं पड़ती।
जीवन भी कमाल करता है, दिन सब दिखा ही देता है। फर्क इतना है कि गुजरती चीज़ें बिछड़ती जाती हैं। वही हाल जो छीटों का हवा में उछलने के बाद होता है।
हाथ अब फरमाईश नहीं करते। हां, पानी का बर्तन पकड़ने में अंगुलियां शरमाती हैं। निवाला मुश्किल से पहुंच पाता है।
झुर्रियां थोड़ी मासूम हैं। बच्चों की तरह इठलाती हैं। जिद्दिपना मानो उनमें कूट-कूट कर भरा है। चिपकी हैं, सो चिपकी हैं। वक्त हिलोरे ले रहा है, पर उनका जश्न जारी है। मुझसे आजतक बोलीं कुछ नहीं। गूंगी भी नहीं हैं झुर्रियां, पर इंसान को बनाने पर तुली हैं।
मैं क्या करुं।
सिलवटों की गहराईयों में झांकने की कोशिश करता हूं। वहां अंधेरा है, दरारें गहरी हैं, तिड़की हैं, बदहाल हैं।
सूखी लकड़ियों की राख बिखरी है। एक झोंके ने कणों को गति दे दी। सफर सूखा है, मगर तितर-बितर। उदास मन अपना-सा मुंह लिए लौट आया। डोर का नाता यहीं तक था। बूंदों का टपकना रुका नहीं, क्योंकि जीवन नहीं था। फिर होगा मौसम सुहाना। फिर चहकेगा कोई................पर कितने दिन।
-Harminder Singh