हमारा देश त्योहारों और परम्पराओं का शिरोमणी देश है। वैसे तो यहां हर माह कोई न कोई त्योहार उपस्थित रहता है लेकिन दीपावली और होली दो ऐसे त्योहार हैं जिन्हें दुनिया के किसी भी कोने में मौजूद जो भी भारतीय होगा वह बहुत ही हर्ष, उल्लास और उमंग से मनायेगा।
होली का त्योहार ऐसे समय में मनाया जाता है जब रितुराज वसंत पूर्ण यौवन पर होता है। वृक्षों पर बौर और नवकिसलय की उपस्थिति से वातावरण सुगंध और प्रफुल्लता से भरपूर हो जाता है। ऐसे में स्पफूर्तिदायक वायु ढलती आयु के जन मानस में भी नवयुवकों जैसी शक्ति का संचार करती है।
रंगों का यह त्योहार देश में मौजूद विभिन्न रीति रिवाजों के अनुगामी और नाना सांस्कृतिक संस्कारों को संजोये रखने वाले लोगों को एकता और आपसी सद्भाव की डोर में बांधता चला आ रहा है। इसमें ऊंच-नीच, अच्छा-बुरा और छोटा-बड़ा सभी समानता के रंग में रंग जाते हैं। यह त्योहार हमें आपसी भाई-चारे और एकता का सन्देश देने हर वर्ष आता है।
दूसरी ओर बदलते सामाजिक परिवेश और भूमंडलीकरण के कारण रंगों के इस त्योहार को मनाने के ढंग और प्रारुप में भी बदलाव आता जा रहा है। भागदौड़ और तनावपूर्ण जीवन ने सभी त्योहारों को प्रभावित किया है। इस मौके पर शरारती तत्व राह चलते लोगों पर अकारण ही रंग डाल देते। इनमें कई खतरनाक रंग भी होते हैं जो कपड़ों के साथ स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।
लोग कीचड़ और गंदगी तक फैंकने से बाज नहीं आते। कई तत्व सुरापान और मांस भक्षण कर अनाप-शनाप हरकतें कर एक पवित्र त्योहार पर अपवित्रता का लेबल चस्पा करने से भी नहीं चूकते। भांग तक को देवताओं के प्रसाद की संज्ञा देकर लोगों को पिला देते हैं।
महीने भर गांवों की गलियों में देर रात तक लोग बम बजाकर हर्षोल्लास और आनन्द के साथ घूमते थे। अब वह मदमस्त रंगत कहीं गायब हो चुकी है। कहीं कोई उमंग, उल्लास अथवा उत्साह नजर नहीं आता। ऐसे में यह रंगीन त्योहार लगातार बदरंग होता जा रहा है।
-Harminder Singh
होली का त्योहार ऐसे समय में मनाया जाता है जब रितुराज वसंत पूर्ण यौवन पर होता है। वृक्षों पर बौर और नवकिसलय की उपस्थिति से वातावरण सुगंध और प्रफुल्लता से भरपूर हो जाता है। ऐसे में स्पफूर्तिदायक वायु ढलती आयु के जन मानस में भी नवयुवकों जैसी शक्ति का संचार करती है।
रंगों का यह त्योहार देश में मौजूद विभिन्न रीति रिवाजों के अनुगामी और नाना सांस्कृतिक संस्कारों को संजोये रखने वाले लोगों को एकता और आपसी सद्भाव की डोर में बांधता चला आ रहा है। इसमें ऊंच-नीच, अच्छा-बुरा और छोटा-बड़ा सभी समानता के रंग में रंग जाते हैं। यह त्योहार हमें आपसी भाई-चारे और एकता का सन्देश देने हर वर्ष आता है।
दूसरी ओर बदलते सामाजिक परिवेश और भूमंडलीकरण के कारण रंगों के इस त्योहार को मनाने के ढंग और प्रारुप में भी बदलाव आता जा रहा है। भागदौड़ और तनावपूर्ण जीवन ने सभी त्योहारों को प्रभावित किया है। इस मौके पर शरारती तत्व राह चलते लोगों पर अकारण ही रंग डाल देते। इनमें कई खतरनाक रंग भी होते हैं जो कपड़ों के साथ स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।
लोग कीचड़ और गंदगी तक फैंकने से बाज नहीं आते। कई तत्व सुरापान और मांस भक्षण कर अनाप-शनाप हरकतें कर एक पवित्र त्योहार पर अपवित्रता का लेबल चस्पा करने से भी नहीं चूकते। भांग तक को देवताओं के प्रसाद की संज्ञा देकर लोगों को पिला देते हैं।
महीने भर गांवों की गलियों में देर रात तक लोग बम बजाकर हर्षोल्लास और आनन्द के साथ घूमते थे। अब वह मदमस्त रंगत कहीं गायब हो चुकी है। कहीं कोई उमंग, उल्लास अथवा उत्साह नजर नहीं आता। ऐसे में यह रंगीन त्योहार लगातार बदरंग होता जा रहा है।
-Harminder Singh