उम्र गुजरने के साथ इंसान को लगने लगता है कि जिस दौर से वह गुजर रहा है वह निश्चित था। उसे बूढ़ा होना ही था। जर्जरता के साथ जीना था। झुर्रियों से समझौता करना था। कमर को झुकाकर चलना था। शरीर को थका हुआ पाना था। इसके अलावा भी उसे बहुत कुछ सहना था। इसलिए वह खामोश है, चुप है। सोच रहा है कि वक्त किसी तरह बीत जाये।
बीत रहा है वक्त भी, धीरे-धीरे। घड़ी की टिक-टिक उसे स्पष्ट तो नहीं सुनाई दे रही, लेकिन इतना भी बहरा नहीं हुआ वह। कदमों की आहट को भले न जान पाये, मगर जिंदगी की आखिरी आहट उसे भली-भांति समझ आती है। वक्त गुजर रहा है। गवाह है वह उस माहौल का जहां उसके जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई उजागर हो रही है। दिन-ब-दिन शरीर बूढ़ा हो रहा है। काया कमजोर पड़ती जा रही है। वह धुंधली नजरों से जितना देख पा रहा है वह उसके लिए काफी है। यह बुढ़ापा है। जीवन का सार। जीवन की सच्चाई जो बिना आहट के नहीं आयी। बताकर आई है।
पहले जीवन का उत्सव मनाया गया था। अब बुढ़ापा उत्सव मना रहा है। जीवन तब भी था, अब भी है लेकिन संशय के साथ कि कब वक्त की लगाम छूट जाये। कब सांस थम जाये। यह जीवन के साथ हादसा नहीं होगा। यह अंत होगा जीवन का। दूसरे देश जाने का न्यौता है बुढ़ापा। बुलावा आया है, जाना पड़ेगा। मोह का त्याग उम्र के साथ हो गया, लेकिन अभी कसर बाकि है। न कोई संगी है, न साथी। अकेला है बूढ़ा अपने बुढ़ापे की चादर में लिपटा असहाय सा।
सोच रहा है कि समय कितना छोटा था। कल वह वहां था, आज कहां है। बुढ़ापा नाच रहा है। झूम रहा है और गीत गा रहा है ताकि जिंदगी अलविदा कह सके।
एक मुस्कान उभरी और बूढ़ा बुदबुदाया। जिंदगी सिमट रही थी। अंधेरा मिट रहा था। वह किरण उजाले की थी। वहां न शोर था, न गीत, न बोल। जिंदगी विदा ले चुकी थी। रह गयी थी मुस्कराती काया झुर्रियों को ओढ़े, सिलवटों की गहराई को नापती हुई।
-हरमिन्दर सिंह चाहल.
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