रविवार के दिन हर किसी को लगता है कि आज छुट्टी है, चलो आराम किया जाये। मेरे एक मित्र रवि को लगता है कि आज छुट्टी है, कुछ काम किया जाये। एक दिन उसे ऐसा मिलता है जब वह अपने गांव जाता है। अपने खेतों को निहारता है। वहां जाकर वह खेती-किसानी करता है। एक दिन के इस काम से उसे संतुष्टी मिलती है। वह उन छह दिनों के काम को काम नहीं मानता। उसका कहना है -‘गांव में पहुंचकर मैं खेतों को देखता हूं तो सोचता हूं कि मिट्टी कितना कुछ उपजाती है। इसलिए मैं फावड़ा चलाता हूं। हर सप्ताह कुछ नये पौधे खेत के किनारों पर बोता हूं। वे बड़े होंगे तो किसी काम आयेंगे। फसल को पानी देता हूं। ट्यूबवैल के पानी में नहाता हूं। हर वह चीज करने की कोशिश करता हूं जो एक किसान करता है। आखिरकार मैं भी तो किसान हूं। किसानी के काम को मैं असल काम कहता हूं।’
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वह आगे कहता है -‘किसान श्रम करता है। वह अन्न उगाता है। देश का पेट भरता है। अर्थव्यवस्था की रीढ़ होते हैं किसान। मुझे खुशी होती है जब मैं दूसरों को काम करते देखता हूं। खेत हमारे हैं। उन्हें हम उन्नत करने के मकसद से काम करते हैं।’
रवि के अनुसार वह सप्ताह में छह दिन सुकून से नहीं बैठ पाता। नौकरी सरकारी जरुर है, लेकिन वह बिना थके काम करने की अपनी आदत को छोड़ने वाला नहीं। वह बताता है कि रविवार के अलावा भी छुट्टियां होती हैं तो भी वह अपने गांव ही जाता है। किसी मित्र मंडली में वह अधिक समय नहीं बिताता क्योंकि वहां उसे लगता है फालतू की बातों के अलावा कुछ नहीं होगा।
सच में काम करने वाले लोग काम ही करते हैं। ये लोग जमीन से जुड़े हैं। इनकी अपनी कहानी है जो हमें सिखाती है कि गांव अपना है, खेत अपने हैं और फसल पेट भरती है। श्रम की बूंदों से यही लोग जमीन को सींचते हैं।
-हरमिन्दर सिंह चाहल.
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