नाम किसी का कुछ भी हो सकता है। बचपन में जो नाम माता-पिता ने रख दिया उसे कई लोगों को जिंदगी भर ढोना पड़ता है। बाद में कई लोग अपना नाम बदल लेते हैं। जबकि कुछ ऐसा नहीं कर पाते।
एक व्यक्ति का नाम उसके पुरखों के नाम पर रखा गया था। नाम ऐसा था कि वह उसे संक्षिप्त में बताता था। दसवीं की मार्कशीट में पूरा नाम लिखा था। उसे पढ़कर उसके दोस्त उसका मजाक उड़ाते।
दसवीं तक उसे बहुत शर्मिंदा होना पड़ा। उसके बाद रोल नंबर बोला जाने लगा। लेकिन दोस्तों से वह स्कूली दिनों में बच न सका। किसी ने सलाह दी कि नाम में क्या रखा है, बदल दीजिये। परिजनों से वह लड़ा, अड़ा, लेकिन हुआ ढाक के तीन पात।
बेचारा मायूसी से दिन काटते हुये, रातों सोचते हुए कालेज तक पहुंचा। डिग्री हासिल की, नौकरी मिली, पत्नि भी। नाम वही रहा। बच्चे हुए लेकिन नाम को उसने किसी पंडित आदि को नहीं बुलाया। नाम अपने आप रखे। वह खुश था। चेहरे पर उसके अलग ही चमक थी। उसने अपना बोझ खत्म कर दिया था।
वाकई नाम का भी बोझ होता है। कुछ लोग उसे जीवन भर ढोते हैं। कुछ उससे समझौता कर लेते हैं। कुछ नाम बदल लेते हैं।
फिर क्यों लोग कहते हैं -"नाम में क्या रखा है?"
-हरमिन्दर सिंह चाहल.