खुला खत : बुढ़ापे से तुम भी घबरा गये बेटा

प्यारे बेटे,

मैं उदास हूं. समझ नहीं पा रहा कि जिंदगी में ऐसे उतार-चढ़ाव क्यों आते हैं? मेरे प्रश्न ढेरों हैं.

तुम्हारी मां कहा करती थी कि बेटे इकलौते हों तो कोई परवाह नहीं करनी चाहिए. वह गलत नहीं थी, लेकिन उसने शायद बुढ़ापा नहीं देखा. वह पहले ही हमसे विदा ले गयी.

जानता हूं मैं कि बेटा तुम अपने पिता को भूल नहीं सकते. कम से कम चिता को आग देने तो आओगे. ऐसा तुम जरुर करोगे.

यहां इतने वृद्धों के साथ रहते हुए मुझे सालों हो गये. अब तो यही मेरा घर है. यहीं आखिरी सांस लूंगा.

मेरी तरह कई मेरे साथी अपने से पराये हो गये. कब बुढ़ापा आया, कब यहां धकेल दिये गये -यही तो जिंदगी की हैरत है.

कभी-कभी आंखें नम हो आती हैं. तुम्हारा बचपन याद आ जाता है. याद आते हैं वे पल जब तुम पहली बार ‘पा’ कहना सीखे थे. मोहल्ले में खूब इतराया था तब तुम्हारा यह पा.

तुम्हारा पहला जन्मदिन हमारे लिए सबसे खास था. सबने मिलकर उस अकेली मोमबत्ती को बुझाया था.

ऐसे पल ढेरों आते रहे जब तुम्हारे माता-पिता तुम्हें हर खुशी देते रहे. दर्द तुम्हें होता, रोते हम अधिक थे. यह प्रेम था जिसकी सीमा नहीं होती, जो अविरल बहता है.

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अपनी औलाद को प्यार जिंदगी में सबसे खूबसूरत अहसास होता है हर माता-पिता के लिए.

माना जिंदगी रुखी होती है. माना जिंदगी बेदर्द होती है. लेकिन बुढ़ापा शायद उससे भी सख्त होता है जो इंसान को जर्जर कर देता है, अपनों से दूर कर देता है. मैं तुम्हें दोष नहीं दूंगा, लेकिन तुम्हें अपना फर्ज निभाना चाहिए था.

बुढ़ापे से तुम भी घबरा गये बेटा.

तुम क्यों घबरा गये? तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था.

तुम्हारा पिता बूढ़ा होकर भी बुढ़ापे से नहीं डरता. मैं जिंदगी से भी नहीं भयभीत हुआ. मालूम है मुझे कि सच तो सच है, फिर भय कैसा.

तुम नहीं जानते कि इस उम्र में आदमी अपनों के बिना मुश्किल से रह पाता है. वह बच्चा बन जाता है. वही भोलापन लौट आता है.

अधिक नहीं लिख सकता. मेरा दिल भर आया है.

यह शायद मेरा आखिरी खत हो तुम्हारे नाम.
  
तुम्हारा पिता

महेश


-हरमिन्दर सिंह चाहल.

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