न उम्र जीती, न हम

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सफर के दौरान बहुत कम लोगों से हम बात कर पाते हैं। अक्सर हमें फिक्र गंतव्य तक पहुंचने की अधिक रहती है। मुझे पिछले दिनों एक बुजुर्ग मिले जिन्होंने तीन घंटे से अधिक के सफर को कुछ मिनटों की तरह बना दिया। उनसे बातें हुए, ढेरों बातें जिनके सिर भी थे और पैर भी।

रामसरन गुप्ता की उम्र 70 साल है। माथे पर तिलक लगाये वे बीते दिनों में खो गये थे। आज भी वे साइकिल चलाकर एक गांव से दूसरे गांव जाते हैं।

जवानी के दिनों में बहुत सेहत पर ध्यान दिया। गुड के साथ छाछ का अपना ही आनंद होता है। दोपहर में तपती दोपहरी में पेड़ की छांव में बैठकर ठंडी हवाओं का सुख हर किसी की चाह होती है। घड़े(मटका) का पानी इतना शीतल होता है कि रोम-रोम प्रसन्न हो जाये।

शाम को खुले आसमान के नीचे चारपाई पर लेटकर तारों को निहारना बहुत मजेदार काम है। ग्रामीण परिवेश में जीवन उतना गतिशील नहीं होता, लेकिन सुकून, शांति और सहजता किसी दूसरे परिवेश में नहीं मिल सकती।

रामसरन बीच-बीच में मुस्कराते। उनके दांत पूरे नहीं थे, लेकिन गन्ने को चूसने की ताकत आज भी बरकरार है। जिक्र हुआ तो मुझे हमारे यहां गन्ने की प्रजाति ‘रसगुल्ला’ याद आ गयी। उसे छीलना अलग तरह का अनुभव है। एक बार में कई पोरी(गन्ने के हिस्से) छिल जाते हैं। चबाने के बाद जो मिठास आती है उसे भूला नहीं जा सकता। रसगुल्ला गन्ना ‘फोका’ यानि मुलायम होता है। छोटे बच्चा या फिर कमजोर दांत वाला भी उसे सरलता से छील सकता है।

उन्होंने खेत में तपती धूप में दरांती लेकर गेहूं की फसल को काटा है। उनके यहां कंबाइन आदि मशीनों का इस्तेमाल नहीं करते क्योंकि वे भूसा सुरक्षित करना चाहते हैं। थ्रेसर से भूसा अच्छी मात्रा में मिल जाता है।

मैंने उत्साहित होकर जानना चाहा कि उम्र से उन्हें कोई शिकवा तो नहीं।

वे हंसे, फिर कहा,‘न उम्र जीती, न हम। आये जरुर हैं, लेकिन जाना तय है।’

सच में जन्म लिया ही जाने के लिए है। मैं सोचता रहा कि बुढ़ापा गहरा है। एक समुद्र जो कभी उथला नहीं हो सकता क्योंकि वहां अनुभवों की फसल पनपती है। वहां आकार लेते हैं अनगिनत पहलू जिनका नाता जीवन से है। हम वक्त को रोक नहीं सकते, न उम्र को बढ़ने से। साथ दौड़ती सांसें जो जीवित रखती हैं हमें।

सच है -‘जी रहे हैं हम क्या बात है, उम्र रुठेगी तो गम होगा।’

-हरमिन्दर सिंह चाहल.

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